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कविता

क्या न तुमने दीप बाला ?

महादेवी वर्मा


क्या न तुमने दीप बाला ?
क्या न इसके शीत अधरों -
से लगाई अमर ज्वाला ?

अगम निशि हो यह अकेला,
तुहिन-पतझर-वात-बेला,
उन करों की सजल सुधि में
पहनता अंगार-माला !

स्नेह माँगा औ’ न बाती,
नींद कब, कब क्लांति भाती !
वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला !

झर इसी से अग्नि के कण,
बन रहे हैं वेदना-घन,
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला ?

यह जला निज धूम पीकर,
जीत डाली मृत्यु जी कर,
रत्न सा तम में तुम्हारा
अंक मृदु पद का सँभाला !

यह न झंझा से बुझेगा,
बन मिटेगा मिट बनेगा,
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला !

(सांध्य गीत से)
 


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